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आर्थिक विचारों का इतिहास

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व्यापार और अर्थशास्त्र प्रवेशद्वार

आर्थिक प्रगति के विभिन्न चरणों में विभिन्न आर्थिक विचारकों द्वारा जो आर्थिक विचार व्यक्त किये गये, उनका सामूहिक नाम ही आर्थिक विचारों का इतिहास है।

मनुष्य की विचार-शक्ति के साथ ही आर्थिक विचारों का भी जन्म हुआ। प्रो. अलेक्जेण्डर ग्रे के अनुसार मानव विचार के इतिहास में अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के विधिवत नियमों का विकास भले ही हाल में हुआ हो परन्तु अर्थशास्त्र सम्बन्धी बातों के बारे में मनन और किसी हद तक विचार-विमर्श तभी से चला आ रहा है जब से मनुष्य ने विचारना शुरू किया था। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य सदा से ही आर्थिक प्रयत्न करता रहा है। जैसे-जैसे आर्थिक प्रगति हुई, आवश्यकताओं का भी विस्तार हुआ और मनुष्य के आर्थिक प्रयत्नों का स्वरूप भी बदलते हुए परिवेश में बढ़ने लगा। इस प्रकार आर्थिक विचारों का इतिहास बहुत प्राचीन है जो मानव के प्रारम्भिक आर्थिक प्रयत्नों से जुड़ा हुआ है।

प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक

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मनु को प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों में प्रथम स्थान दिया गया है। आर्थिक सुव्यवस्था द्वारा मनु ने प्रजावर्ग के कल्याणार्थ नियमों का प्रथम वार प्रतिपादन किया। अत: मनु को प्रथम नियम प्रवर्तक माना गया है। अर्थ जगत के व्यवहार के लिए आवश्यक है। अत: प्रथम आर्थिक विचारक मनु ने अर्थ प्राप्ति के साधनों की प्राप्ति उद्योग, कर व्यवस्था, मूल्यनिर्धारण, वस्तु वितरण, व्यापार, कृषि आदि पर सुव्यवस्थित रूप से नियन्त्रण रख कर प्रजा के आर्थिक जीवन को उन्नत करने पर विशेष ध्यान दिया है। मनु ने समाज की अराजकता वाली स्थिति में समाज के कल्याण के लिये उपकार कर उचित व्यवस्था लाने और राज्य के आर्थिक जीवन को उन्नत करने में बहुत बड़ा काम किया। शोषण की मनोवृत्ति को दूर कर पोषण का कार्य प्रारम्भ किया और सभी प्रजाजनों की आर्थिक स्थिति उन्नत करने का प्रयास किया। अर्थव्यवस्थापक ‘मनु’ ने जीविका को चार प्रकार का माना है 1. ऋत 2. अमृत 3. मृत 4. प्रमृत[1]

  1. किसानों के खेतों में फसल काटने के पश्चात् छूटे हुए अन्न को पाना ऋत कहलाता है।
  2. बिना मांगे जो मिल जाये उसे अमृत कहते हैं।
  3. भिक्षा मांग कर जो मिलता है उसे मृत कहते हैं।
  4. कृषि से उत्पन्न होने वाले अर्थ को प्रमृत कहा गया है।

कौटिल्य

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शुक्र का मानना है कि राज व्यवस्था के लिए धन अपरिहार्य है। उनके अनुसार सेना और प्रजा के संरक्षण के लिए यज्ञ करने हेतु कोष संग्रह किया जाना आवश्यक है। ऐसा कोष राजा के लिए इस लोक तथा परलोक में सुखदायी होता है। वहीं, भोग-विलास के लिए संग्रहीत कोष दुख का कारण बन जाता है। जो धन संग्रह स्त्री और पुत्रों के लिए ही किया गया है, वह केवल उपभोग के लिए होता है। ऐसे कोष से परलोक में कोई सुख नहीं मिलता वरन् नरक मिलता है। जो अन्याय से कोष का संग्रह करता है, वह पाप व नर्क का भागीदार होता है। जो धन सुपात्र से ग्रहण किया जाता है या सुपात्र को दान दिया जाता है वही बढ़ता है, अन्यथा बाकी धन दुख का कारण बनता है।

शुक्र का मानना है कि आपातकाल को छोड़कर कभी भी तीर्थ या देव स्थानों से कर नहीं लिया जाना चाहिए। यदि आपातकाल को छोड़कर राजा जनता पर कर भार बढ़ा देता है तो राजा को प्राप्त ऐसा धन प्रजा, राज्य, कोष और राजा सभी को नष्ट कर देता है। बेचने और खरीदने वालों को जो राजभाग देना पड़ता है, वह शुल्क (चुंगी) कहलाता है। शुल्क लेने के स्थान बाजारों के मार्ग या सीमा (गाँव की चौकी) होते हैं। एक वस्तु का एक बार राज्य-शुल्क लिया जाना चाहिए। जो भूमि कंकरीली या बंजर हो उसकी आय का छठा भाग ही राजा को कर के रूप में ग्रहण करना चाहिए।

राज्य की कुल आय का आधा भाग कोष में जमा किया जाये। शेष का आधा अर्थात् कुल आय का 1/4 सेना पर व्यय किया जाये । कुल आय का 1/12 अंश ग्रामों के चौधरियों के वेतन पर व्यय किया जाये। शेष दो बराबर भागों में बाँटा जाये अर्थात् कुल आय के 1/28 अंशों में और उन्हें दान, जन मनोरंजन, अधिकारियों के वेतन और राजा के व्यक्तिगत खर्चों पर व्यय किया जाये ।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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